मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

सफर ‘दार्जिलिंग’ का


ऐसी जन्नत की सैर... जो आपको मत्रमुग्ध कर देगी.... कुदरत के उन खास नजारों की जो आपको स्वर्ग का अहसास करा जाएगी.. और आपके कदम भी चल पड़ेंगे उसी ओर.. चारों ओर बिखरा पड़ा कुदरत का अनमोल खजाना... और ये खूबसूरत नाजारा, चाय बागनों में चाय की पत्तियां चुनती महिलाएं, ठंडी हवाओं के साथ मदहोश कर देने वाला मौसम और टॉय ट्रेन में दार्जिलिंग का सफर... जन्नत का अहसास करा देती हैं... दार्जिलिंग की चाय की खेती दुनियाभर में मशहूर है... भारत सहित कई देशों में दार्जिलिंग से चाय भेजी जाती है... यहां पर चाय की खेती सन 1800 से भी पहले से की जा रही है... 








ब्रिटिश शैली के कई स्कूल आज भी दार्जिलिंग में मौजूद हैं... जहां अपने देश ही नहीं बल्कि नेपाल के छात्र भी शिक्षा पाने के लिए आते हैं। इतिहास बताता है कि आंग्लह-नेपाल युद्ध के दौरान एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी सिक्किम जाने के लिए छोटा रास्ता तलाश कर रही थी... उस वक्त ब्रिटिश सैनिकों ने दार्जिलिंग की खोज की... इस रास्ते से सिक्किम तक आसानी से पहुंचा जा सकता है... इसी के चलते दार्जिलिंग.. ब्रिटिश के लिए रणनीतिक रूप से भी काफी अहम हो गया था... प्राकृतिक छटाओं से लबरेज ये जगह किसी जन्नत से कम नहीं थी... कहा जाता है कि दार्जिलिंग की फिजाओं में बहती ठंडी हवा और कई दिनों तक होती बर्फबारी अंग्रेजों को खूब पसंद थी... इसके बाद ब्रिटिश लोगों ने धीरे-धीरे यहां बसना शुरू कर दिया... यहां का इतिहास काफी उतार चढ़ाव भरा रहा... बताते चलें कि शुरूआत में दार्जिलिंग सिक्किम का एक हिस्सा था... पर कुछ समय बाद भूटान ने इस पर कब्जा कर लिया... बाद में सिक्किम ने इसे दोबारा अपने कब्जे में कर लिया... इसके बाद 18वीं शताब्दी में सिक्किम ने इसे नेपाल के हाथों गवां दिया... मगर नेपाल भी इस छोटी सी जन्नत पर ज्यादा वक्त तक अधिकार नहीं रख पाया... 1817 में हुए आंग्लन-नेपाल में हार के बाद नेपाल को इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा... 1840 और 50 के दशक में दार्जिलिंग युद्ध स्थल के रूप में बदल गया... सबसे पहले यहां तिब्बत के लोग आए... और उसके बाद यूरोपियन लोग आए... मौजूदा समय में दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल का एक हिस्सा है... इस शहर का अगर भूगोल देखा जाय तो ये इलाका 3149 वर्ग किलोमीटर में फैला है.. दार्जिलिंग का उत्तरी हिस्सा नेपाल और सिक्किम से जुड़ा है... अक्टूबर से मार्च तक दार्जिलिंग बर्फ की चादर से ढक जाता है... बाकी समय का मौसम हल्का ठण्डा बना रहता है...














दार्जिलिंग की हिमालयी रेल.... जिसे लोग "टॉय ट्रेन" के नाम से जानते हैं... ये ट्रेन दार्जिलिंग के सफर को और खुशनुमा बना देती है... ये ट्रेन जलपाइगुड़ी और दार्जिलिंग के बीच आपका हमसफर बनती है... दार्जिलिंग की टॉय ट्रेन दूसरी ट्रेनों के मुकाबले कुछ खास ही है... पहाड़ों के घुमावदार रास्तों पर मदमस्त चाल से चलती इस ट्रेन में सैलानी दार्जिलिंग में कुदरती नजारे का खूब आनंद उठाते हैं... इस ट्रेन को सन 1879 और 1881 के बीच बनाया गया था.. अंग्रेजों का इस ट्रेन को बनाने का मकशद था ईस्ट इंडिया कंपनी के मज़दूरों को पहाड़ों तक पहुंचाना... तब का दार्जिलिंग का ये शहर आज के दार्जिलिंग से बिलकुल अलग था.. तब वहां सिर्फ 1 मोनेस्ट्री, ओब्ज़र्वेटरी हिल, 20 झोंपड़ियां और करीब 100 लोगों की आबादी थी... पर आज यहां का नज़ारा बिलकुल बदल चुका है... और यूनेस्को ने दार्जिलिंग की हिमालयी रेल को विश्व धरोहर की सूची में शुमार किया है... ये एक अनोखा अनुभव है जिसको देखने हर साल लाखों लोग यहां आते हैं... न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग तक की सेवा आधुनिक डीजल इंजनों से उपलब्ध कराई जाती है... इस जॉय राइड का अनुभव लेने के लिए आपको अपनी जेब थोड़ी ढ़ीली जरूर करनी होगी... सिलीगुड़ी को दार्जिलिंग की मनोरम पहाड़ियों की सैर को लेकर शैलानियों के बीच काफी लोकप्रिय है.. इसलिए इस ट्रेन में सफर करने के लिए टिकट पहले से ही बुक कराए जाते हैं... 78 किलोमीटर के इस सफर के दौरान 13 स्टेशन पड़ते हैं... न्यू जलपाईगुड़ी के समतल रेलवे स्टेशन से शुरू हुई ये यात्रा हर मोड़ पर कुछ खास अहसास करा देती हैं... शहर के बीचों बीच से गुज़रती दो डिब्बों की टॉय ट्रेन लहराती हुई चाय बागानों के बीचोंबीच से होकर महानंदा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के जंगलों में प्रवेश करती है... इसकी रफ़्तार अधिकतम 20 किमी प्रति घंटा है... आप चाहें तो दौड़ कर इसे पकड़ सकते हैं... हरयाली से भरे जंगलों को पार कर ये पहाड़ों में बसे छोटे छोटे गांवों से होती हुई आगे बढ़ती है... रास्ते में कई जगह रिवर्स लाइन भी पड़ती हैं... जहां रेलवे का एक कर्मचारी घने जंगल में मुस्तैदी से ट्रेन के लिए लाइन बदलता है और एक बार फिर ये सुहाना सफर शुरू हो जाता है... इन हसीन वादियों में आपको ऊंचाई से खेलते कुदरती झरने, अलग-अलग तरह के पेड़ पैधे, सुन्दर सजीले पक्षी और मुस्कुराते पहाड़ी लोग नजर आते हैं... कितने ही लूप और ट्रैक बदलती ये ट्रेन पहाड़ी गांव और क़स्बों को छूकर किसी पहाड़ी बुज़ुर्ग की तरह 6-7 घंटे में धीरे-धीरे दार्जिलिंग पहुंचती है.... इस रास्ते पर पड़ने वाले स्टेशन आज भी अंग्रेज़ों के ज़माने की याद दिलाते हैं... दार्जिलिंग से कुछ पहले घूम स्टेशन पड़ता है इसे सबसे ऊंचाई पर स्थित होने का गौरव मिला है... यहां से आगे चलकर बतासिया लूप पड़ता है.. यहां एक शहीद स्मारक है... जहां से पूरा दार्जिलिंग नज़र आता है... शाम ढलने से पहले ये टॉय ट्रेन आपको दार्जिलिंग पहुंचा देती है... आपके इस सुहाने सफर की हमसफर.. टॉयट्रेन को  आप आजीवन नहीं भुला सकेंगे...


















कुदरत की इस अनोखी छटा को संजोए दार्जिलिंग में जो व्यक्ति एक बार आता है वो बार-बार यहां आने की इच्छा रखता है... बर्फ की चादर ओढ़े इस विशाल चोटी की पृष्ठभूमि में बसे दार्जिलिंग में आप अल्पाइन, साल और ओक के पेड़ों से लैस समशीतोष्ण वनों को दखे सकते हैं... मौसम में परिवर्तन के बावजूद दार्जिलिंग के जंगल आज भी हरे भरे हैं... यहां की इसी खूबी के चलते दार्जिलिंग के पर्यटन को नया आयाम मिलता है... शहर में कुछ प्राकृतिक पार्क भी हैं... जिनको आज भी कुदरत ने संजोकर रखा है... इनमें पड़माजा नायडू हिमालियन जूलॉजिकल पार्क और लॉयड बॉटनिकल गार्डन शामिल हैं.... शाम के समय में आपको इन जगहों पर बड़ी संख्या में प्रकृतिप्रेमी और फोटोग्राफर देखने को मिलेंगे...





























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